हिमाल : अपना-पहाड़

बस एक कामना, हिम जैसा हो जाए मन

Friday, February 27, 2009

के के साह

नैनीताल में होली शुरू हो चुकी है। वैसे पूरे कुमाऊं में होली महीनों पहले शुरू हो जाती है। लेकिन नैनीताल और अल्मोड़ा दो ऐसे शहर रहे हैं, जहां होली का अपना ही मजा है। यहां आपको होली के कई कद्रदान मिल जाएंगे। ऐसे ही एक शख्स को मैं जानता हूं। उनका नाम के के साह है।

आप कहेंगे, ये के के साह कौन हैं ? दरअसल इस शख्स की शख्सियत से मैं भी परिचित नहीं था। पर कुछ साल पहले एक दिन यूं ही अपने कुछ वरिष्ठ साथियों के साथ .... मैं के के साह के घर चला गया। वो होली के दिन थे, के के ने अपने घर की छोटी सी बैठक में होली की तैयारियां की थी।

करीब सात बजे शाम को शुरू हुआ होली का कार्यक्रम। हारमोनियम, ढोलक, ताल मजीरे की धुन पर ईश वंदना के साथ होली की बैठक शुरू हो गयी। शुरू में दो-चार लोगों ने ही होली गायन शुरू किया। लोग आते गए...... जैसे-जैसे लोग आते के के उनका पूरे सम्मान के साथ स्वागत करते। छोटों को शुभ आशीष देकर और बड़ों के पैर छूकर। अबीर गुलाल से एक दूसरे को टीका लगाया गया।

यहीं पता चला कि जिस शख्स के घर पर मैं आया हूं, वो होली का कितना बड़ा कद्रदान है। एक ऐसा शख्स जो कुमाऊंनी होली का पूरा इन-साइक्लोपीडिया है। यहीं पता चला कि के के पिछले साठ सालों से हर साल अपने घर पर होली की बैठक का आयोजन करते आ रहे हैं।

के के के घर पर इस शास्त्रीय होली की शुरुआत पौष माह के पहले इतवार से हो जाती है, जो कि दिसंबर के महीने में पड़ता है। बैठक होली का ये सिलसिला रंग पड़ने के दिन तक चलता है, यानि करीब-करीब दो महीने तक। .... बैठक होली का ये कार्यक्रम रोजाना शाम सात बजे शुरू होता है, और फिर महफिल पर है.... कब तक रंग जम जाए।

हारमोनियम, तबला, ताल मजीरे की आवाज और शास्त्रीय अंदाज में सुरों का उतार-चढाव ऐसे लोगों को भी खूबसूरत अहसास से भर देता है, जो कुमाऊंनी होली की शास्त्रीयता से परिचित नहीं हैं। जैसे-जैसे अंधेरा गहराता है, होल्यारों पर संगीत का नशा चढ़ता जाता है। जुगलबंदी.... और आपस में सुर-ताल का मुकाबला माहौल को एक अजीब तरह की मस्ती से भर देते हैं।
एक ही होली गीत के अलग-अलग मुखड़ों को, अलग-लग अंदाज़ में सुर-ताल से गाया जाता है। ये माहौल इतना रुमानी होता है, कि इसे शब्दों में बयां करना शायद ही संभव हो। ... मैं तो यही कह सकता हूं, और मैंने महसूस भी किया..... कि जब के के साह के घर पर होली गायन अपने उफान पर था, तो माहौल सूफी गायकी से कम नहीं था।

के के की एक और खासियत से आपको रुबरू करवा दूं। के के करीब साठ सालों से केवल होली ही नहीं करवा रहे, बल्कि उन्होने साठ साल से होली के बदलते स्वरुपों को बकायदा टेप करके सुरक्षित रखा है। उनके पास इस दौरान के लगभग सभी बड़े होली गायकों (होल्यारों) की आवाज़ में होली सुरक्षित है।
उनके इस संग्रह में शिवलाल वर्मा (अच्छन जी), जवाहर साह, प्यारे साह, उर्वादत्त पांडे, तारा प्रसाद पांडे, रमेश जोशी, दिनेश जोशी, हेम पांडे और ललित मोहन जोशी जैसे होली गायकों की आवाज़ में होली गायन मौजूद हैं।

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Thursday, February 26, 2009

पहाड़ पर लालटेन

जंगल में औरतें हैं
लकड़ियों के गट्ठर के नीचे बेहोश
जंगल में बच्चें हैं
असमय दफनाए जाते हुए
जंगल में नंगे पैर चलते बूढ़े हैं
डरते-खांसते अंत में गायब हो जाते हुए
जंगल में लगातार कुल्हाड़ियां चल रही हैं
जंगल में सोया है रक्त

धूप में तपती चट्टानों के पीछे
वर्षों के आर्तनाद हैं
और थोड़ी सी घास है बहुत प्राचीन
पानी में हिलती हुई
अगले मौसम से जबड़े तक पहुंचते पेड़
रातोंरात नंगे होते हैं
सुई की नोक जैसे सन्नाटे में
जली हुई धरती करवट लेती है
और एक विशाल चक्के की तरह घूमता है आसमान

जिसे तुम्हारे पूर्वज लाए थे यहां तक
वह पहाड़ दुख की तरह टूटता आता है हर साल
सारे वर्ष सारी सदियां
बर्फ की तरह जमती जाती हैं नि:स्वप्न आंखों में
तुम्हारी आत्मा में
चूल्हों के पास पारिवारिक अंधकार में
बिखरे हैं तुम्हारे लाचार शब्द
अकाल में बटोरे गए दानों जैसे शब्द

दूर एक लालटेन जलती है पहाड़ पर
एक तेज आंख की तरह
टिमटिमाती धीरे-धीरे आग बनती हुई
देखो अपने गिरवी रखे हुए खेत
बिलखती स्त्रियों के उतारे गए गहने
देखो भूख से बाढ़ से महामारी से मरे हुए
सारे लोग उभर आए हैं चट्टानों से
दोनों हाथों से बेशुमार बर्फ झाड़कर
अपनी भूख को देखो
जो एक मुस्तैद पंजे में बदल रही है
जंगल से लगातार एक दहाड़ आ रही है
और इच्छाएं दांत पैने कर रही हैं
पत्थरों पर।

-मंगलेश डबराल

(ये कविता २००० में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित वरिष्ठ कवि और पत्रकार मंगलेश डबराल की है, जो कि उनके काव्य संग्रह 'पहाड़ पर लालटेन' से ली गयी है। इस कविता के बारे में अब कुछ कहना शायद संभव नहीं।)

Wednesday, February 25, 2009

ये है ख़बरों का बाज़ार।

टीवी न्यूज़ का कारोबार अपने देश में अभी नया है। ऐसा टीवी न्यूज़ को संचालित करने वाले लोग कहते हैं। इसकी आड़ में पिछले 6-7 सालों से चौबीस घंटे के न्यूज़ चैनलों ने क्या-क्या नहीं दिखाया ?.... पहले थ्री सी यानि क्रिकेट, क्राइम और सिनेमा की थ्योरी दी गयी। फिर चमत्कार की ख़बरों का एक लंबा दौर चला। जल्दी ही चमत्कार की ख़बरों को जानवरों की स्टोरी ने टेक ओवर कर लिया। टावर पर किसी के भी चढ़ जाने की घटनाएं समाचार के रुप में पेश की गयी।..... और ये सब चलाने का फैसला लेने वालों ने इसके कुछ कारण भी गिनाए। मिया बीबी की लड़ाई का खेल भी टीवी पर खूब दिखाया गया। एमएमएस क्लिप से लेकर सेक्स को दिखाने की जो भी इवेंट हो सकते थे, उपयोग में लाए गए।...नाच गाना, आइटम सॉन्ग, हंसगुल्लों की फुलझड़ी।...... इंटरटेनमेंट को न्यूज़ बना दिया गया। लोगों को बताया गया... कि ये ख़बर है।.... देखना है तो देखो नहीं तो भाड़ में जाओ।...... दौर कुछ बदला है.... कुछ समाचार चैनलों ने अपनी लक्ष्मण रेखा खींची है।... ख़बरों का दौर फिर से लौटा भी है। लेकिन आज भी न्यूज़ को बरबाद करने वाले अपनी मनमानी कर रहे हैं।............ ये पंक्तियां आज से करीब 2 साल पहले मैंने लिखी थी। कहीं डायरी के किसी पन्ने को पलटते हुए, ये नज़र आ गयी। पढ़ने के बाद लगा, ये तो आज भी मौंजू है, सो इन्हें यहां लाकर रख दिया है।.......... आप भी पढ़कर बताइए, आप जिस न्यूज़ चैनल को देखते हैं, वो इससे किस तरह अलग है।

ये है... ख़बरों का बाज़ार
सजी हुई हैं, यहां वहां पर
तरह-तरह की ख़बरें।

हंसती ख़बरें, रोती ख़बरें
आड़ी-तिरछी, ऊंची-नीची।
नंगी ख़बरें, अधनंगी ख़बरें
ख़बर विषैली, गजब नशीली।
कर देंगी हैरान,
ये है ख़बरों का बाज़ार।

कई व्यापारी, खड़े यहां पर, पड़े वहां पर।
कोई बैठा, पान चुग रहा
कोई सुर्ती हाथ मल रहा
कोई डिब्बे पर पीकें छोड़े।

कोई गाली, कोई धमकी
कोई गंदी बातें बोले।
अजब बाज़ार, ख़बरों का व्यापार।

मुर्गे की बांग, सज गयी मंडी
पैकेज चलाओ, बाइट कटाओ
खिड़की के अंदर शॉट दिखाओ
वीएसटी ले लो....... इस पर खेलो।
बीजी लगाओ.... पेलो जी।।

प्रोमो रंग बिरंगा हो
सनसन.... करता आए वो
खूब करो हंगामा।
पीटो ढोल, बजाओ नगाड़े
सच ना हो तो, क्या लेना जी।।

ये ख़बरों की मंडी,
थोड़ी अच्छी बाकि गंदी जी।।

रेप दिखाओ, नाच चलाओ
मिया-बीबी को भड़काओ
कोई बच्चा मिल जाए तो
खुश हो लो..... जमकर खेलो।।

गड्ढा-गड्ढा, आओ खेलें
प्रिंस गिर गया, उसे निकालें।

हत्या-चोरी सीनाजोरी
गुंडो-मुस्टंडों की तोड़ाफोड़ी
गाड़ी तोड़ो, कार जलाओ
टावर पर पप्पू.... खूब दिखाओ।।

टीवी तेरी महिमा न्यारी,
सज गयी मंडी करो तैयारी।।

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Monday, February 23, 2009

कुमाऊंनी होली


ब्रज की होली छेड़छाड़ और एक खास तरह के रस के लिए मशहूर है। तो कुमाऊं की होली अपनी शास्त्रीयता और शालीनता के लिए पहचानी जाती है। देश भर में जहां-जहां भी होली खेली जाती है, कुमाऊंनी होली उन सबसे अलग नज़र आती है। हालांकि वक्त के साथ कुमाऊंनी होली की चमक भी कम हुई है, लेकिन उसकी मिठास में कोई कमी नहीं आई है

कुमाऊंनी होली की सबसे बड़ी ख़ासियत है, उसकी गायन शैली। सुर, लय, ताल को समय के आधार पर गाया जाता है। कुमाऊंनी होली मुख्य रुप से दो तरह से गाई जाती है। पहली, बैठक होली और दूसरी, खड़ी होली।

बैठक होली में लोग एक जगह पर बैठकर होली गायन करते हैं। बैठक होली में गायन पर काफी ज़ोर रहता है। होली को ख़ास शास्त्रीय धुनों पर गाया जाता है। जबकि खड़ी होली में लोग घूम-घूमकर होली गायन करते हैं, इसलिए गायन शैली में शास्त्रीयता होने के बावजूद इसमें कुछ लचीलापन रहता है।

कुमाऊंनी होली के दो मुख्य केंद्र रहे हैं, नैनीताल और अल्मोड़ा। यहां होली के महत्तव को इसी बात से समझा जा सकता है कि होली से करीब एक महीने पहले से ही बैठक होली का दौर शुरू हो जाता है। इन होलियों में भाग लेने वाले लोग संगीत की बारिकियों को बखूबी समझते हैं।

कुमाऊंनी शास्त्रीय होली गायन मुख्य रुप से ताल और खटके पर आधारित है। हालांकि कुमाऊंनी होली गायन के लिए कोई लिखित नियम नहीं हैं। लेकिन इसका विकास एक परपंरा के तौर पर होता गया है।
कुमाऊंनी होली मुख्य रुप से धम्मार और दीपचंदी ताल पर आधारित है। जिसे होली गायकों ने अपनी सुविधानुसार धम्मार और चांचर में बदल दिया है। इस प्रकार ताल के परिवर्तित रुप में केवल मात्रा का ही अंतर है। जहां धम्मार और दीपचंदी में १४ मात्राओं की आबद है। वहीं इसके सरल रुप झम्मार और चांचर में १६ मात्राओं में आबद है। शास्त्रीयता में सरल होने के बावजूद कुमाऊंनी होली गायन में सिद्ध होने के लिए अभ्यास की ज़रुरत होती है।

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गढ़केसरी अनुसूया प्रसाद बहुगुणा

वो अंग्रेजों की दासता का वक्त था। पूरे देश पर अंग्रेजों का राज था। देश के उत्तर में जहां हिमालय दूर-दूर तक फैला है, अंग्रेज अपनी मनमानी कर रहे थे। तत्कालीन यूनाइटेड प्रोविंस का सबसे उत्तरी छोर, जो अब उत्तराखंड कहलाता है, कुली बेगार से तड़फ रहा था।

अंग्रेज अधिकारी अपने निजी काम कराने के लिए स्थानीय लोगों का उपयोग करते थे। माल को इधर-उधर पहुंचाने के लिए जानवरों की जगह इंसानों का प्रयोग। कुली की तरह इंसानों का उपयोग। अंग्रेज अधिकारी जिस किसी से चाहे कुली बेगार करवा सकता था। और जो मना करता, उसे भारी जुर्माने के साथ-साथ जेल की सजा हो जाती।

इस दमनकारी नीति के खिलाफ १९१९ में पूरे उत्तराखंड क्षेत्र में जन-आंदोलन चला। तत्कालीन ब्रिटिश गढ़वाल (अब पौढ़ी, चमोली, रुद्रप्रयाग) में इस आंदोलन की बागडोर गढ़केसरी अनुसूया प्रसाद बहुगुणा के हाथ में थी।

अनुसूया प्रसाद बहुगुणा का जन्म १८ फरवरी, १८६४ में चमोली के अनुसूया आश्रम में हुआ। माता-पिता भगवान में अटूट आस्था रखते थे, इसलिए बेटे का नाम अनुसूया देवी के नाम पर अनुसूया रखा गया।

अनुसूया प्रसाद की शुरुआती शिक्षा गांव में ही हुई। पौड़ी के मिशन स्कूल से हाईस्कूल किया। इसी दौरान स्वतंत्रता आंदोलन की ओर रुझान होने पर युवक संघ की स्थापना की। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से १९१२ में बीएससी और 1916 में एलएलबी की पढ़ाई पूरी की।

एलएलबी की पढ़ाई के दौरान ही उनकी नियुक्ति नायब तहसीलदार के तौर पर हो गयी। लेकिन आज़ादी का जज़्बा मन में पैदा हो चुका था, इसलिए अंग्रेजों की नौकरी को ठोकर मार अनुसूया प्रसाद वकालत करने लगे। शुरूआत में भारतीय होने की वजह से उनके साथ भेदभाव किया गया, पर बुद्धि के धनी अनुसूया प्रसाद ने जल्दी ही सबको दिखा दिया कि वो मामूली आदमी नहीं हैं।

१९१९ में अनुसूया प्रसाद ने बैरिस्टर मुकुंदीलाल के साथ लाहौर में कांग्रेस के सम्मेलन में भाग लिया। वहां से लौटकर अब वो पूरी तरह से आज़ादी के आंदोलन में लग गए। १९१९-२० में जब कुली बेगार प्रथा के खिलाफ पूरे उत्तराखंड में आंदोलन चला तो ब्रिटिश गढ़वाल में इसकी बागडोर अनुसूया प्रसाद ने संभाल ली। गांव-गांव घूमकर लोगों को कुली बेगार के खिलाफ खड़ा किया।

अनुसूया प्रसाद की कोशिशों का नतीजा निकला, १९२१ में। अंग्रेज़ कमिश्नर रैमजे जब चमोली के दशजूला पट्टी पहुंचा, तो उसका खाना बनाने, सामान उठाने और दूसरे कामों के लिए कोई भी बेगार करने को तैयार नहीं हुआ। हार कर रैमजे ने अनुसूया प्रसाद को बातचीत के लिए बुलाया। लेकिन अनुसूया प्रसाद कुली बेगार खत्म किए बगैर बातचीत के लिए तैयार नहीं हुए। अनुसूया प्रसाद के इस साहसिक कदम के बाद जनता ने उन्हें गढकेसरी कहना शुरू कर दिया।

अनुसूया प्रसाद ने १९१६ से १९२४ के बीच बदरीनाथ और केदारनाथ मंदिरों मे फल रहे भ्रस्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाई। जिसके बाद प्रशासन को बदरीनाथ प्रबंध कानून बनाना पड़ा। और कानून के तहत बदरीनाथ मंदिर प्रबंध समिति का गठन किया गया। जिसके पहले अध्यक्ष डॉ. सर सीताराम बनाए गए। अनुसूया प्रसाद को तत्कालीन संयुक्त प्रांत की विधानसभा का सदस्य होने की वजह से इसका सदस्य बनाया गया।

सत्याग्रह आंदोलन में हिस्सा लेने की वजह से अनुसूया प्रसाद को 1930 में जेल जाना पड़ा। इसके बावजूद उन्हें अंग्रेज रोक नहीं सके। 1940 में सत्याग्रह आंदोलन हुआ, तो अनुसूया प्रसाद को एक साल के लिए बरेली जेल जाना पड़ा। १९४२ में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्हें उनके घर में ही नज़रबंद कर दिया गया।

आज़ादी का सपना देखने वाला ये परवाना देश को आज़ाद हवा में सांस लेता हुआ नहीं देख पाया। २३ मार्च १९४३ को अनुसूया प्रसाद बहुगुणा ने इस जहां से विदा ली। लेकिन इस महान आंदोलनकारी को शायद ही कभी भुलाया जा सके। जब भी आजा़दी का ज़िक्र होगा, लोग गढ़केसरी अनुसूया प्रसाद बहुगुणा को याद करेंगे।

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Sunday, February 22, 2009

प्यार



तुमसे,


जो कुछ मिल रहा है


सोचता हूं


बहुत है।।

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Thursday, February 19, 2009

तुम सब हार जाओ....

संसद । जब ये शब्द सुनाई पड़ता है, तो सोचिए आपके-हमारे ज़ेहन में क्या तस्वीर उभरती है।.... हल्के लाल... गुलाबी पत्थरों से बनी एक घुमावदार इमारत।.... ऐसा बचपन में होता था, जब भी संसद की बात होती, दिमाग में यही घुमावदार विशाल इमारत का नक्शा घुमने लगता। थोड़ा बड़ा हुआ तो टीवी पर प्रश्नकाल की बहस देखने की एक आदत सी लग गयी। लेकिन अब संसद का नाम लेने पर संसद भवन की तस्वीर के रुप में वो घुमावदार इमारत का नक्शा नहीं दिखता।.... अब मामला दूसरा है, अब जब भी संसद की बात होती है, तो हंगामा करते सांसद दिमाग में घूमने लगते हैं।
हंगामा करते ऐसे सांसद जिन्हें किसी की भी परवाह नहीं। ना देश की, ना देश की जनता की। जब वो जनता की परवाह नहीं करते, तो फिर उनके सामने स्पीकर क्या चीज़।... अगर स्पीकर की वो परवाह करते, तो फिर स्पीकर को क्यों कहना पड़ा, मैं चाहूंगा कि आप सब लोग अगले चुनाव में हार जाएं। स्पीकर सांसदों के व्यवहार से इतने व्यथित हुए, कि उन्होने कहा कि उनके पास सांसदों की इस अनुशासनहीनता के बारे में कहने के लिए शब्द नहीं हैं, पर वो समझते हैं कि ये बहुत निंदनीय है।..... स्पीकर ने सांसदों को चेताया कि अगर वो सदन में ऐसे ही हंगामा करते रहे, तो जनता उनके बारे में फैसला ज़रुर करेगी।
स्पीकर ने ऐसा भावावेश में नहीं कहा होगा। वे बड़े राजनेता हैं, 1971 से करीब चार दशक हो गए, उन्हें राजनीति करते हुए। 9 बार संसद में पहुंच चुके हैं, सोमनाथ चटर्जी। ज़ाहिर सी बात है, कि ये महज़ आंकड़ा नहीं है, इससे सोमनाथ चटर्जी का व्यक्तिव बना है।
यही अनुभव और यही व्यक्तिव उन्हें चार दशक तक अपनी पार्टी से जुड़ा होने के बावजूद उसके खिलाफ खड़ा होने की ताकत देता है। सोमनाथ जानते हैं कि बहस का लोकतंत्र में क्या मतलब होता है। ऐसा नहीं कि वो सदन में बहस के विरोधी हैं, पर बहस की एक मर्यादा तो होनी ही चाहिए।....... यही सोमनाथ चटर्जी बतौर स्पीकर दूसरे सांसदों से चाहते हैं।
बतौर स्पीकर सोमनाथ चटर्जी सदन में सांसदों के साथ अधिक कड़ाई नहीं कर सकते। लेकिन जनता के हाथ में वोट की ताकत है। और ऐसे समय में जब चुनाव बिल्कुल नजदीक हैं, हमें अपनी ताकत को समझना चाहिए।...... फिर सोमनाथ चटर्जी की वो बात भी याद रखनी होगी, जिसमें उन्होने सांसदों से कहा था............. इंतज़ार करो, आने वाले चुनाव में जनता तुम्हें सबक सिखाएगी।

गांव

ये सच है
कहानी नहीं।
ज़िंदगी के पैरों पर
कांटों के घाव हैं।

आंखों से खून नहीं
आंसू ही निकलते हैं,
आह भी फूटती है, यहां।

याचना के शब्दों में,
काव्य नहीं होता है, यहां
यथार्थ होता है, जीवन का।

दिल में प्यार और करुणा
जीवन की अंतिम सांस तक
पहरा देते हैं।

और कभी जब
ईर्ष्या के बादल फटते हैं
तब, फसल बहती है
जीवन भर की।

यहां, दो अर्थों में बात नहीं होती
सीधे-सरल सच्चे शब्द
जैसे होते हैं, वास्तविक से
मुंह का दरवाजा धकेल कर
आ जाते हैं
चाय के प्याले संग
या फिर, चिलम उड़ाती है
अपने धुएं के साथ।

यहां, बचपन-जवानी और बुढ़ापे के
अलग-अलग सिद्धांत
नहीं
होते

जीवन बंधा होता है
एक ही डोर से।।

(8 सिंतबर, 2001------- ये कविता मैंने 8 सितंबर, 2001 में लिखी थी। करीब आठ साल तक मैंने इसे डायरी के पन्नों में सहेज कर रखा। पुराने पन्ने पलटते हुए एकबार फिर से इस पर नज़र पड़ गयी। सोचा, क्यों ना इसे आपके सामने रख दूं। ये आठ साल पुरानी बात है, मैं तब कॉलेज में था, ज़ाहिर है.... तब से अब तक सोच में कई बदलाव भी आए हैं। लेकिन पुरानी बातों को आज के शब्द में रखकर शायद हम पुराने वक्त को नहीं टटोल सकते। इसलिए वही पुरानी कविता, जब मैं आठ साल छोटा था, पूरी की पूरी लिख डाली है। )

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वक्त


मैंने देखा है,
शब्दों के अर्थ बदलते रहते हैं
सच हमेशा, सच नहीं रहता
कभी-कभी,
झूठ, सच बन जाता है
दया के मायने बदल जाते हैं
करुणा,अपने भाव बदल लेती है
समय बदल देता है, बहुत कुछ।
शोषित को भी देखा है

शोषण करते हुए
प्यार में कटुता भी हो सकती है
और घृणा में, ढेर सारा प्यार भी।

दोस्त, हमेशा दोस्त नहीं रहते
आपस में लड़ने लगते हैं
और जान के दुश्मन
दोस्त बनकर गले मिलते हैं।
ये वक्त है
बदलता है, घड़ी-घड़ी।।

(22 अगस्त, 2001)

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Sunday, February 15, 2009

उसके लिए...

मुझे तुमसे कितना कुछ मिला ।
रातें लंबी- लंबी,
काली अंधेरी।
लगातार बारिश,
भीगती सुबह।
तपती दुपहरी,
लू के थपेड़े।
फिर ओस भरी,
सर्द शाम।
तुम बिन भी,
बहुत कुछ है
मेरे पास।
धूल, आंधी है
प्यास, बैचेनी है।
प्यार अधूरा सा,
पूरा बचा है।
अब भी, तुम बिन ।।

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Saturday, February 14, 2009

चुनाव आया, देखो नेताओं का रैला आया

जी हां, साहेबान चुनाव फिर से सिर पर हैं। इसबार पांच साल बाद आए हैं। लेकिन देश की आज़ादी से अब तक चुनावों में कुछ नहीं बदला। पहले भी नेता हाथ जोड़कर वोट मांगते थे, वादा करते थे कि विकास कदमों पर लाकर बिछा देंगे। अभी भी नेता यही कर रहे हैं। नेता चाहे जो करें, लेकिन हमारी भी ज़िम्मेदारी है। देखना हमें है, हम क्या कर सकते हैं।

चुनाव पर दो शब्द

१.मदारी
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हां तो !
मेहरबान, कद्रदान
आप बीड़ी पी के फूंक देते हैं
पान खा के थूक देते हैं
क्या एक छोटा सा वोट
हमें नहीं दे सकते ?
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गिर्दा
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२.आये दिन बहार के
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'स्वेत-स्याम-रतनार' अंखिया निहार के
महा-महा प्रभुओं की पग-धूर-झार के
लौटे हैं दिल्ली से कल टिकट मार के
खिले हैं दांत ज्यों दाने आनार के
आये दिन बहार के।
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नागार्जुन
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3.ख़ूनी पंजा
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ये खूनी पंजा किसका है
ये मुल्क में कहर सा बरपा है
ये शहर में आग सा बरसा है
ये खूनी पंजा किसका
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गोरख
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